अरावली पर संकट तो 4 राज्यों सहित हिमालय में भी मंडरायेगा बड़ा खतरा
नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने नवम्बर 2025 में अरावली पहाडि़यों की एक समान परिभाषा को मंजूरी दे दी है। जिसके अनुसार आसपास की जमीन से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची कोई भी भू-आकृति ही अरावली पहाड़ी मानी जायेगी। ऐसी 2 या 2 से अधिक पहाडि़यां अगर एक-दूसरे से 500 मीटर के जद में है तो वह अरावली रेंज कहलायेगी। यह परिभाषा केन्द्र सरकार की समिति की सिफारिश पर आधारित है। लेकिन इसे लेकर विवाद खड़ा हो गया है।
पर्यावरणविदों ने बताया है कि इससे अरावली का 90% से अधिक हिस्सा संरक्षण से बाहर हो सकता है। जबकि सरकार इसे पुरानी व्यवस्था का विस्तार बता रही है। इससे थार-रेगिस्तान का फैलाव, भूजल स्तर गिराना और दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के बढ़ने का खतरा मंडरा रहा है। अरावली भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला है। जो थार को रोकती है। उत्तर भारत की जलवायु की सुरक्षित रखती है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से अरावली बचाने का अभियान तेज हो गया है। लेकिन अरावली के संरक्षण पर खतरे की आशंका के साथ ही इसका प्रभाव सिर्फ राजस्थान, दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और गुजरात तक ही सीमित नहीं होगा। बल्कि हिमालयन रेंज और पहाड़ी राज्य उत्तराखंड को लेकर भी अब कई तरह की चिंतायें और संभावित खतरों को लेकर आशंकायें जताई जा रही है।
अगर अरावली संकट आता है तो हिमालय को प्रभावित करेगा
सवाल के जवाब में प्रो. सुदेश यादव कहते है कि अगर भविष्य में अरावली की पहाडि़यों पर मायनिंग बढ़ती है तो इसके परिणामस्वरूप धूल के कणों में अच्छी खासी वृद्धि देखने को मिल सकती है। प्रो. सुर्देश यादव ने इसके पीछे की वजहों को एक-एक समझाने की कोशिश की है।
रेगिस्तानी धूल के मूवमेंट में अरावली भूमिका क्यों हैं अहम
अरावती पर्वतमाला थारे रेगिस्तान और इंडो गंगेटिक-हिमायली क्षेत्र के बीच एक प्राकृतिक भू-आकृतिक अवरोध के रूप में काम करती है। इसकी चट्टानी संरचना और ऊंचाई तथा इस पर उगे हुए जंगल हवा की रफ्तार को कम करते है। जिसकी वजह से हवा में मौजूद कण इंडो-गंगेटिक प्लेन इलाके में गिर जाते है। हिमालय इलाके में बहुत कम मात्रा में पहुंचते हैं।

