हीरे की हो रही कालाबाजारी, पन्ना में देश का इकलौता कार्यालय
पन्ना. खुदाई-मचाई-छंटाई, कई-कई दिन और कई-कई वर्षो तक यह काम चलता है। तब जाकर हीरा मिलता है। किस्मत हो तो पहली कुदाल जमीन पर पड़ते ही फट से चकाचौंध कर देगा। रूठा हो तो पीडि़यां खप जाये, छिपा ही रहेगा।
कभी हीरा मिला क्या
हां… मिला क्यों नहीं, इतनी बार मिला कि गिनती छोउ़ दी। मैं मजदूर थी। ठेकेदार के हाथ में हीरा देती तो सीना धड़-धड़ करता। आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है। फिर आद हो गयी, चाहे करोड़ों का हीरा मिले तो हमारे लिये उसका मोल शाम के चूल्हे जितना है। पन्ना, मध्य भारत का यह जिला हीरों की खदान के लिये मशहूर रहा है। वहां के राजा छत्रसाल को वरदान था कि उनके घोड़े के पांव जहां-जहां पड़ेंगे। वहां-वहां धरती के भीतर हीरा जी उठेगा। पन्ना के बाशिंदों के पास इस पर लम्बी छोटी ढेरों कहांनियां है। शहर के अन्दर घुसते ही यह कहानियां जिन्दा हो जाती है। खदानों में, चाय की दुकानों में और सुबह फावड़े-तसलियां लेकर जाते और देर दोपहर टूटी झोपडि़यों में लौटते मजदूरों में।
एमपी के उत्तरी कोने पर बसे जिले में अन्दर घुसते ही घने जंगल मिलेंगे। यहां करीब 5.50 वर्ग किमी में फैला टाइगर रिजर्व है।जिसमें सफरारी के लिये दूर-दूर से लोग आते हैं। इससे गुजरने के बाद पन्ना के खदानी इलाके प्रारंभ हो जायेंगे। यह इलाका पारंपरिक रूप से डायमंड मायनिंग के लिये ही जाना जाता है। जहां देश का इकलौता हीरा कार्यालय भी है।
खनन इलाके में शुरू से आखिर तक घेमते चलें तो कुछ चीजें कॉमन है। धूप और धूल से बनी खानों में धूसर रंगे लोग दनादन फावड़े चलाते हुए। प्यास लगने पर जीभ फेरकर मुंह तर करते हुए और बिना सुस्ताये दोबारा हीरा तलाशते हुए।
हीरे की आस में जीते हुए
पन्ना मुख्यालय से एनएच-39 लेते हुए आगे जाने पर 7 किमी दूर मनौर गांव पड़ेगा। सड़क के नीचे उतरते ही कच्ची-पक्की रोड़। करीब 200 घरों वाला यह गांव है। शहर को छूता हुआ लेकिन शहराती छुअन से बचा हुआ। पन्ना की कहानियों में मनौर का नाम ही लिया जात है। क्यों यहां विधवाये अधिक बसती है। इसकी जड़ में भी खदानें ही है। पत्थर खदानें। जहां काम करते-करते पुरूषों के सीने पथराने लगे है।
पन्ना में हीरे की ब्लैक मार्केटिंग का फैला जाल
इस संबंध में पता करते हुए एक ऐसे शख्स तक पहुंचे जो वर्षो से अवैध हीरों का एजेेंट है। दुबला-पतला एजें दिल्ली-एनसीआर के आईटी प्रोफेशनल की झलक दे रहा है और इतना ही उसके साथ कम से कम तस्करी शब्द सटीक नहीं बैठता है। एजेंट बताता हैकि हमारे मोहल्ले में एक एजेंट था। उसके पास सूरत से मुंबई से पार्टियां आती रहती थी। दोस्ताने में मैं भी साथ जाने लगा और फिर यहीं मेरा काम बन गया। हमारे लोग गांव-गांव हैं। जैसे ही किसी को हीरा मिलता है वह सबसे पहले हमारे पास खबर आती है। हम उससे मिलते हैं। हीरा देखते हैं फिरकीमत का अंदाला लगातार पार्टी को कॉल (वह व्यापारी जो ब्लैक में हीरा खरीदेंगे) करते हैं। वह लोग पन्ना आते है स्वयं तसल्ली करते हैं। फिर सब फायनल हो जाता है। पार्टी हवाला से पैसा भेजती है।
जो हमारे पास आता है। इसके बाद हम अपना एक से 2प्रतिशत काटकर हीरा पाने वाले को पूरी रकम दे देते हैं। पैसों को लेकर कभी कोई फसाद नहीं हुआ है। नहीं, 2 नम्बर के काम में सबसे ईमानदारी होती है। लेकिन कईबार दूसरे झंझट आते हैं। जैसे ही पुलिस पकड़ लेती है। उन्हें भी अपना हिस्सा चाहिये होता है। लोग अपना हीरा नम्बर 2 में क्यों बेचने लगे। पैसे तत्काल के तत्काल मिल जाते हैं। दूसरा सरकारी नीलामी में व्यापारी पहले से तय करके बैठने लगे कि इतनी बोली से ऊपर जायेंगे ही नहीं। वह कम कीमत देने लगे। जिससे तुआदार के पास कोई रास्ता नहीं बचता था। ब्लैक मार्केट में वहीं व्यापारी बेहतर कीमत देते हैं। एजेंट इससे ज्यादा जानकारी देने से मना करता है।

